"श्रद्धा" और "विश्वास" उत्कृष्ट जीवन का आधार
"श्रद्धा" और "विश्वास" के बिना भौतिक जीवन में भी गति नहीं, फिर आध्यात्मिक क्षेत्र का तो उसे प्राण ही कहा गया है । आदर्शवादिता में प्रत्यक्षत: हानि ही रहती है, पर "उच्चस्तरीय मान्यताओं" में "श्रद्धा" रखने के कारण ही मनुष्य त्याग-बलिदान का कष्ट सहन करने के लिए खुशी-खुशी तैयार होता है . ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व तक प्रयोगशालाओं की कसौटी पर खरा सिद्ध नहीं होता । वह निश्चित रूप से "श्रद्धा" पर ही अवलंबित है । मनुष्य का व्यक्तित्व जिसमें संस्कारों का, आदतों का गहरा पुट रहता है, वस्तुतः श्रद्धा की परिपक्वता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की आदतें और मान्यताएँ अत्यंत गहराई तक घुसी रहती हैं और वे उन्हें छोड़ने को सहज ही तैयार नहीं होते । यह संस्कार और कुछ नहीं चिरकाल तक सोचे गये, माने गये और व्यवहार में लाए गये अभ्यासों का ही परिपाक है । तथ्यों की कसौटी पर इन संस्कारों में से अधिकांश "बेतुके" और "अंधविश्वास" स्तर के होते हैं, पर मनुष्य इन्हें इतनी मजबूती से पकड़े होता है कि उसके लिए वे ही "सत्य" बन जाते हैं और सत्य और तथ्य कह कर वह उन पूर्वाग्रहों के प्रति अपनी कट्टरता का परिचय देता है । उसके लिए लड़ने-मरने तक को तैयार हो जाता है । यह मान्यता परक कट्टरता और कुछ नहीं मात्र "श्रद्धा" द्वारा रची गयी खिलवाड़ मात्र है ।
"तर्क" की शक्ति का जन्म भी "श्रद्धा" के गर्भ से ही होता है । यों तो तर्क विचारणा को जन्म देता है और श्रद्धा विश्वास को, पर विचारणा भी विचार के लिए आधार ढूँढती है । आधार तभी बन सकता है जब "विश्वास" हो । अन्यथा तर्क बुद्धि तो किसी भी केंद्र पर चिंतन को केंद्रीभूत नहीं कर सकती । यह तो तभी बन पाता है जब विश्वास के सहारे विषय पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाता है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि *"श्रद्धा" के अभाव में "विचारणा", "तर्क" का प्रादुर्भाव संभव नहीं । किसी विषय पर आस्था ही तर्कों का सृजन करती, उस पर सोचने, सत्य को खोज निकालने को प्रेरित करती है । "श्रद्धा" मानवीय व्यक्तित्व के मूल में घुली-मिली है, जिसके बिना एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता । आगे बढ़ने, प्रगति करने की बात तो दूर रही । यह बात अलग है कि हम उसका अनुभव न कर सकें ।
साधना से सिद्धि- पृष्ठ-६०
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य