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साधना की सफलता के दस लक्षण
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
गायत्री साधना से साधक में एक सूक्ष्म दैवी चेतना का आविर्भाव होता है। प्रत्यक्ष रूप से उसके शरीर या आकृति में कोई विशेष अन्तर नहीं आता पर भीतर ही भीतर भारी हेर−फेर हो जाता है। आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि से प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोश और मनोमय कोषों में जो परिवर्तन होता है उसकी छाया अन्नमय कोष में बिलकुल ही दृष्टि गोचर न हो ऐसा नहीं हो सकता। यह सच है कि शरीर का ढांचा आसानी से नहीं बदलता, पर यह भी सच है कि आन्तरिक हेर फेर के चिन्ह शरीर में प्रकट हुए बिना नहीं रह सकते।
यह दस_लक्षण नीचे दिए जाते है।
1. शरीर में हलकापन और मन में उत्साह होता है।
2. शरीर में से एक विशेष प्रकार की सुगंध आने लगती है।
3. त्वचा पर चिकनाई और कोमलता का अंश बढ़ जाता है।
4. तामसिक आहार विहार से घृणा बढ़ जाती है और सात्विक दिशा में मन लगता है ।
5. स्वार्थ का कम और परमार्थ का अधिक ध्यान रहता है।
6. नेत्रों में तेज झलकने लगता है।
7. किसी व्यक्ति या कार्य के विषय में वह जरा भी विचार करता है तो उसके संबंध में बहुत सी ऐसी बातें स्वयमेव प्रतिमथित होती है। जो परीक्षा करने पर ठीक निकलती है।
8. दूसरों के मन के भाव जान लेने में देर नहीं लगती।
9. भविष्य में घटित होने वाली बातों का पूर्णाभ्यास मिलने लगता है।
10.शाप या आशीर्वाद सफल होने लगते हैं। अपनी गुप्त शक्तियों से वह दूसरों का बहुत कुछ भला या बुरा कर सकता है।
यह दस लक्षण इस बात के प्रमाण हैं कि साधक का मार्ग पक गया और सिद्धि का प्रसव हो चुका। इस शक्ति सन्तति को जो साधक सावधानी के साथ पालते पोसते हैं उसे पुष्ट करते है। वे भविष्य में आज्ञाकारी सन्तान वाले बुजुर्ग की तरह आनन्द परिणामों का उपभोग करते हैं किन्तु जो फूहड़ जन्मते ही सिद्धि का दुरुपयोग करते हैं उनकी स्वल्प शक्ति का विचार न करते हुए उस पर अधिक भार डालते हैं उनकी गोदी खाली हो जाती है और मृतवत्सा माता की तरह उन्हें पश्चाताप करना पड़ता है।
पन्डित श्री राम शर्मा आचार्य
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