नमस्कार मित्रो, ऋषि चिन्तन चैनल में आपका स्वागत है, आज का विषय है ।
हम बुद्धिमान सिद्ध भी तो हों
"बुद्धिमत्ता" इस बात में थी कि "आत्मा" और "शरीर" दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता । श्रम और बुद्धि की जो सामर्थ्य प्राप्त है, उनका उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाता कि "शरीर" की सुरक्षा बनी रहती और "आत्मा" अपने महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकने में सफल हो जाती, किंतु होता विचित्र है । जो बुद्धि आए दिन अनेक समस्याओं के सुलझाने में, संपदा और उपलब्धियों के उपार्जन में, पग-पग पर चमत्कार दिखाती है, वह मौलिक नीति निर्धारण में भारी चूक करती है ।
सारे का सारा कौशल शारीरिक सुख-सुविधाओं के संचय-संवर्धन में लग जाता है । यहाँ तक कि अपने आप को पूरी तरह शरीर ही मान लिया जाता है, "आत्मा" के अस्तित्व एवं लक्ष्य का ध्यान ही नहीं रहता है, आत्म कल्याण के लिए कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ता । बुद्धि का यह एक पक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है । उसी से छुटकारा पाने के लिए "ब्रह्म-ज्ञान", "आत्म-ज्ञान", "तत्व-ज्ञान" के विशालकाय कलेवर की संरचना की गई है । "बुद्धि" को आत्मा का स्वरुप और लक्ष्य समझने का अवसर देना ही "उपासना" का मूलभूत उद्देश्य है ।
चौबीसों घंटे मात्र शरीर के लिए ही शत-प्रतिशत दौड़ धूप करने वाली भौतिकता में पूरी तरह रंगी हुई और लगी हुई बुद्धि को कुछ समय उस भगदड़ से विश्राम देकर आत्मा की स्थिति और आवश्यकता समझने के लिए सहमत किया जाता है । उस अति महत्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा न करने, उस संदर्भ में भी कुछ करने के लिए बुद्धि पर दबाव दिया जाना उपासना का तात्विक उद्देश्य है । "मन" को तदनुसार कल्पनाएँ और बुद्धि तद्विषयक धारणाएँ करने के लिए उपासना पद्धति के आधार पर प्रशिक्षित किया जाता है । वह बहुत बड़ा काम है । सांसारिक जीवन के सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण कामों में से यह एक है । मोटी समझ से तो उसकी तात्कालिक उपयोगिता प्रतीत नहीं होती और कोई आकर्षण न होने से मन भी नहीं लगता, पर विवेक दृष्टि से देखने पर जब उस कार्य की महत्ता समझ में आ जाती है, तब प्रतीत होता है कि यह इतना लाभदायक, उत्पादक, आकर्षक और महत्वपूर्ण कार्य है, जिसकी तुलना संसार के अन्य किसी कार्य से नहीं हो सकती ।
आत्मशक्ति से युगशक्ति का उद्भव पृष्ठ-२३
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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