કલ્પવૃક્ષ

ૐ ભૂર્ભુવ:સ્વ: તત્સવિતુર્વરેણ્યં ભર્ગોદેવસ્ય ધીમહિ ધિયો યો ન: પ્રચોદયાત્ ||

इस पर गंभीरतापूर्वक सोचें

इस पर गंभीरतापूर्वक सोचें

मनुष्य की प्रधान विशेषता उसकी विचारशीलता है । इसी आधार पर उसकी विचारणा, कल्पना, विवेचना, धारणा का विकास होता है ।अनेक "विशेषताओं' के साथ ही एक "भौतिक दुर्गुण" भी है कि समीपवर्ती वातावरण में जो कुछ होता देखता है, उसी के अनुसरण का अभ्यासी बन जाता है ।

जीवन के साथ घनिष्ठता पूर्वक जुड़ी हुई एक कुटेव "चटोरेपन" की है । सृष्टि के सभी प्राणी अपना स्वाभाविक आहार कच्चे रूप में प्राप्त करते हैं, कोई प्राणी अपने भोजन को पकाता, भूनता, तलता, मिर्च-मसाले, शक्कर आदि के आधार पर चटपटा नहीं बनाता । मनुष्य ने पाक कला सीखी, जायकेदार व्यंजन बनाना और स्वाद के.नाम पर अभक्ष्य खाना आरंभ कर दिया । फलतः पाचनतंत्र खराब हुआ, अनेकानेक रोग पीछे पड़े और जीवन अवधि में भारी कटौती हो गई । यदि यह कुटेव न अपनाई गई होती, उपयुक्त शाकाहार पर निर्भर रहा गया होता तो प्रायः आधे आहार से काम चल जाता । पकने में लगने वाला श्रम और धन बर्बाद न होता । पेट ठीक बना रहता, शरीर में शक्ति रहती और लंबा जीवन जीने का अवसर मिलता, पर मनुष्य है जो चटोरा बनकर गुलाम रहने में ही प्रसन्नता अनुभव करता है। व्यंजनों में अपनी रुचि बढ़ाता ही जाता है । फलतः दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु को न्यौत बुलाता है, इसे "समझदारी" को "नासमझी" न कहा जाए तो और क्या कहें ?

लोग घरों में रहते हैं, पर यह आवश्यक नहीं समझते कि घर की बनावट ऐसी हो जिसमें धूप और हवा का आवागमन पूरी तरह होता रहे । किंतु देखा जाता है कि झोपड़ी में रहने की अपेक्षा ऐसे घरों में लोग रहते हैं, जिनमें न धूप पहुँचती है और न हवा ।

यदि मनुष्य ने प्राकृतिक जीवन जिया होता, प्रकृति के सान्निध्य में रहा होता, आहार-विहार में व्यतिक्रम न किया होता, धूप, हवा के संपर्क से अपने को बचाकर न रखा होता तो "आरोग्य" जैसी बहुमूल्य संपदा को गँवा बैठने का त्रास न सहना पड़ता । जैसे-जैसे मनुष्य ने अपनी जीवनशैली में कृत्रिमता को बढ़ावा दिया वैसे-वैसे उसने अपने लिए संकटों को आमंत्रण दिया । मनुष्य की विचारणा शक्ति से नित नूतन अन्वेषण तो होंगें, लेकिन जीवन तो हमें जीना है, आत्म-संयम को अपना कर सुखमय जीवन जिया जा सकता है।

समझदारों की "नासमझी"  पृष्ठ-६
पपन्डित बश्रीराम शर्मा आचार्य

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યુગક્રાંતિના ઘડવૈયા પં. શ્રીરામ શર્મા આચાર્ય

યુગક્રાંતિના ઘડવૈયા પં. શ્રીરામ શર્મા આચાર્યની કલમે લખાયેલ ક્રાંતિકારી સાહિત્યમાં જીવનના દરેક વિષયને સ્પર્શ કરાયો છે અને ભાવ સંવેદનાને અનુપ્રાણિત કરવાવાળા મહામૂલા સાહિત્યનું સર્જન કરવામાં આવ્યું છે. તેઓ કહેતા “ન અમે અખબારનવીસ છીએ, ન બુક સેલર; ન સિઘ્ધપુરૂષ. અમે તો યુગદ્રષ્ટા છીએ. અમારાં વિચારક્રાંતિબીજ અમારી અંતરની આગ છે. એને વધુમાં વધુ લોકો સુધી ૫હોંચાડો તો તે પૂરા વિશ્વને હલાવી દેશે.”

દરેક આર્ટીકલ વાંચીને તેને યથાશક્તિ–મતિ જીવનમાં ઉતારવા પ્રયત્ન કરશો તથા તો ખરેખર જીવન ધન્ય બની જશે આ૫ના અમૂલ્ય પ્રતિભાવો આપતા રહેશો .

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