मन की स्थिरता एवं एकाग्रता अर्थात "तन्मयता"
"मन" की स्थिरता एवं एकाग्रता का सार तत्व "तन्मयता" शब्द में आ जाता है । गायत्री उपासना में यह प्रयोजन "तन्मयता" से पूरा होता है । "तन्मयता" का अर्थ है "इष्ट" के साथ भाव संवेदनाओं को केंद्रीभूत कर देना । यह स्थिति तभी आ सकती है जब इष्ट के प्रति "असीम श्रद्धा" हो । "श्रद्धा" तब उत्पन्न होती है, जब किसी की "गरिमा" पर परिपूर्ण विश्वास हो । साधक को अपनी मनोभूमि ऐसी बनानी चाहिए जिसमें गायत्री महाशक्ति की चरम उत्कृष्टता पर, असीम शक्ति सामर्थ्य पर, संपर्क में आने वाले के उत्कर्ष होने, पर गहरा विश्वास जमता चला जाए । यह कार्य शास्त्र वचनों का, अनुभवियों द्वारा बताए गए सत्परिणामों का, उपासना विज्ञान की प्रामाणिकता का, अधिकाधिक अध्ययन अवगाहन करने पर संपन्न होता है । आशंकाग्रस्त, अविश्वासी जन, उपेक्षा भाव से आधे अधूरे मन से उपासना में लगें, तो स्वभावत: वहाँ उसकी रूचि नहीं होगी और मन जहाँ-तहाँ उड़ता फिरगा । मन लगने के लिए आवश्यक है कि उस कार्य में समुचित आकर्षण उत्पन्न किया जाए । व्यवसाय-उपार्जन में, इंद्रिय भोगों में, विनोद मनोरंजनों में, सुखद कल्पनाओं में, प्रिय जनों के संपर्क सान्निध्य में मन सहज ही लग जाता है । इसका कारण यह है कि इन प्रसंगों के द्वारा मिलने वाले सुख, लाभ एवं अनुभव के संबंध में पहले से ही विश्वास जमा होता है ।
प्रश्न यह नहीं है कि वे आकर्षण, दूरदर्शिता की दृष्टि से लाभदायक हैं या नहीं । तथ्य इतना ही है कि उन विषयों के संबंध में अनुभव-अभ्यास के आधार पर मन में आकर्षण उत्पन्न हो गया है । उस आकर्षण के फलस्वरूप ही मन उनमें रमता है और भाग-भाग कर जहाँ-तहाँ घूम फिर कर वही जा पहुँचता है । हटाने से हटता नहीं, भगाने से भागता नहीं । मानसिक संरचना के इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें "उपासना" के समय मन को "इष्ट" पर केंद्रित रखने की आवश्यकता पूरी करने के लिए पहले से ही मस्तिष्क को प्रशिक्षित करना चाहिए । गायत्री महाशक्ति के संदर्भ में जितना अधिक ज्ञान-विज्ञान संग्रह किया जा सके मनोयोग पूर्वक करना चाहिए । विज्ञ व्यक्तियों के साथ उसकी चर्चा करनी चाहिए । इस संदर्भ में होने वाले सत्संग में नियमित रूप से जाना चाहिए । जिसने लाभ उठाये हों, उनके अनुभव सुनने चाहिए । यह कार्य यों तद्विषयक स्वाध्याय और मनन चिंतन के एकाकी प्रश्न से भी संभव हो सकता है, पर अधिक सरल और व्यावहारिक यह है कि गायत्री चर्चा के संदर्भ में चलने वाले सत्संग में उत्साह पूर्वक नियमित रूप से सम्मिलित होते रह जाए ।
आत्मशक्ति से युगशक्ति का उद्भव- पृष्ठ-४१
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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