उच्च स्तरीय अवस्था है चित्त की एकाग्रता
"उपासना" के लिए जिस "एकाग्रता" का प्रतिपादन है, उसका लक्ष्य है भौतिक जगत् की कल्पनाओं से मन को विरत करना और उसे अंतर्जगत् की क्रिया-प्रक्रिया में नियोजित कर देना । "उपासना" के समय यदि मन सांसारिक प्रयोजनों में न भटके और आत्मिक क्षेत्र की परिधि में परिभ्रमण करता रहे तो समझना चाहिए कि "एकाग्रता का उद्देश्य" ठीक तरह पूरा हो रहा है । विज्ञान के शोध कार्यों में, साहित्य के सृजन प्रयोजनों में, वैज्ञानिक या लेखक का चिंतन अपनी निर्धारित दिशा धारा में ही सीमित रहता है । इतने भर में "एकाग्रता" का प्रयोजन पूरा हो जाता है । यद्यपि इस प्रकार के "बौद्धिक पुरुषार्थ" में "मन" और "बुद्धि" को असाधारण रूप से गतिशील रहना पड़ता है और कल्पनाओं को अत्यधिक सक्रिय करना पड़ता है तो भी उसे "चंचलता" नहीं कहा जाता है । अपनी निर्धारित परिधि में रहकर कितना ही द्रुतगामी चिंतन क्यों न किया जाए ? कितनी ही कल्पनाएँ, कितनी ही स्मृतियाँ, कितनी ही विवेचनाएँ क्यों न उभर रही हों, वे "एकाग्रता" की स्थिति में तनिक भी विक्षेप उत्पन्न नहीं करेंगी । गड़बड़ तो अप्रासंगिकता में उत्पन्न होती है । बेतुका--बेसिलसिले का अप्रासंगिक "अनावश्यक चिंतन" ही विक्षेप करता है । एक बेसुरा वादन पूरे आर्केस्ट्रा के ध्वनि प्रवाह को गड़बड़ा देता है । ठीक इसी प्रकार चिंतन में "अप्रासंगिक विक्षेपों" का ही निषेध है । निर्धारित परिधि में कितनी ही, कितने ही प्रकार की कल्पनाएँ, विवेचना करते रहने की पूरी-पूरी छूट है ।
आत्मशक्ति से युगशक्ति का उद्भव- पृष्ठ-३८
पन्डित श्रीराम शर्मा आचार्य
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