उपासना का सही स्वरूपसमझने की आवश्यकता
उपासना" की प्रक्रिया को अंतःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए । कुसंस्कारों की, कषाय कल्मषों की महाव्याधि से छुटकारा पाने के लिए यही "रामबाण औषधि" है । उच्चस्तरीय "श्रद्धा" का जागरण और वरिष्ठ "निष्ठा" का प्रतिपादन "भगवद्भक्ति" की शिराओं में दवा का प्रवेश कराने के लिए इंजेक्शन की पोली सूई की जो भूमिका है, वही कार्य उत्कृष्टता को "अंतःकरण" की गहराई तक पहुँचाने में "उपासना" करती है ।
पिछले दिनों "उपासना" के नाम पर भोंडा जाल-जंजाल ही जनसाधारण के गले में बाँध दिया गया है । देवताओं को फुसलाकर उचित-अनुचित मनोकामनाएँ पूरी कर लेने की आशा से ही अच्छी बुद्धि के लोग पूजा पाठ करते पाए जाते हैं । यदि उन्हें "उपासना" का तत्वज्ञान और प्रतिफल ठीक तरह समझने का अवसर मिला होता और "आत्म परिष्कार" के उद्देश्य से जनसाधारण को इस पुण्य प्रयोजन में लगाया गया होता, तो स्थिति दूसरी ही होती ।उपासना के माध्यम से आस्थाओं के उत्कर्ष का उद्देश्य ध्यान में रखा गया होता तो, व्यक्तित्व निखरते, परिष्कृत होते और प्रखर बनते । तब "उपासना" करने वाला "भिक्षुक" की नहीं वरन् "दानी" की स्थिति में होता ।
स्वयं पार होता और असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता ।
देवताओं के सामने उसे नाक रगड़ने की आवश्यकता न पड़ती वरन् स्वयं अपने आप में "देवत्व" का उदय देखता, संपर्क क्षेत्र में "स्वर्गीय" वातावरण उत्पन्न करता । प्राचीन काल में आत्म विज्ञान का यही स्वरूप था । ऐसी ही "प्रखर उपासना" का अभ्यास किया जाता था । आज फिर उसी तथ्य पू्र्ण उपासना पद्धति से जन-जन को अवगत और अभ्यस्त कराने की आवश्यकता है ।
आत्म-शक्ति से युग शक्ति का उद्भव पृष्ठ-११
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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