नमस्कार मित्रो, ऋषि चिन्तन चैनल में आपका स्वागत है, आज का विषय है ।
मनुष्य जन्म को सार्थक करें
मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं पहला संग्रहित कुसंस्कारों और कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाकर विश्व उद्यान का परिपूर्ण आनंद उपलब्ध करना । परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनंद भरी उपलब्धियाँ "स्वर्ग" कहलाती हैं और दुर्बुद्धि से, दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को "मुक्ति" कहते हैं । जीवन का एक लक्ष्य यह है ।
दूसरा है भगवान के विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में संलग्न होकर अपनी गरिमा को विकसित करना । मनुष्य को ईश्वर का राजकुमार, उत्तराधिकारी एवं पार्षद कहा गया है और उसके कंधों पर यह उत्तरदायित्व डाला गया है कि स्रष्टा के विश्व उद्यान का सौंदर्य बढ़ाने में हाथ बटाएँ और सच्चे मित्र, भक्त की भूमिका संपन्न करें ।
दोनों प्रयोजनों को जो जितनी मात्रा में पूरा करता है, वह उतना ही बड़ा "ईश्वर भक्त" कहलाता है । इस मार्ग पर चलने वाले महामानव, संत, ब्राह्मण, ऋषि, देवात्मा, अवतारी आदि नामों से पुकारे जाते हैं । उन्हें असीम "आत्म संतोष" प्राप्त होता है और "लोक सम्मान" एवं "सहयोग" की वर्षा होने से उन्हें अपने उच्च स्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है । उनके क्रिया-कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से असंख्यों को ऊँचा उठने का, आगे बढ़ने का असाधारण सहयोग मिलता है । धन-संपत्ति कमाना जब लक्ष्य ही नहीं, वैयक्तिक तृष्णाओं से जब उपराम ही पा लिया गया तो फिर उनका संचय न होना स्वाभाविक ही है । वैभव की दृष्टि से संपन्न होने की जब वे इच्छा ही नहीं करते तो फिर धनवान वे बनेंगे भी कैसे ? इतने पर भी उनकी आंतरिक संपन्नता इतनी बढ़ी-चढ़ी होती है कि अपनी नाव पार लगाने के साथ असंख्यों को उस पर बिठाकर पार लगा सकें । ईश्वर का असीम "अनुग्रह" और "अनुदान" ऐसे ही लोगों के लिए सुरक्षित रहा है । "लोक" और "परलोक" का बनाना इसी को कहते हैं । मनुष्य जीवन इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए मिला है, जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं उन्हीं का नर जन्म धारण करना धन्य एवं सार्थक बनता है, वे ही इस सुर दुर्लभ उपलब्धि का रसास्वादन करते हुए कृतकृत्य होते हैं । जो इस मार्ग पर जितना बढ़ सका, समझना चाहिए कि उसने उतनी ही मात्रा में लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता पा ली ।
आत्मशक्ति से युगशक्ति का उद्भव- पृष्ठ-२२
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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