"परिश्रम" - विलक्षण सद्गुण
कई बार कुछ लोगों में जन्मजात प्रतिभाएँ भी पाई जाती हैं । उनमें शारीरिक एवं मानसिक प्रतिभा दूसरों की तुलना में अधिक होती है । इसके आधार पर वे जल्दी और अधिक सरलता से सफलता प्राप्त कर लेते हैं । यह ईश्वर का पक्षपात या भाग्य का खेल नहीं, उनके पूर्व जन्मों के "परिश्रम" का फल है, जो जन्मजात संस्कार के रूप में इस जन्म में अनायास ही उपलब्धि जैसा दीख रहा है ।
"परिश्रम" वह साधना है जो कभी निष्फल नहीं जाती । आज उसका अभीष्ट परिणाम न मिले तो भी यह नहीं सोचना चाहिए कि श्रम साधना बेकार चली गई, जी तोड़ मेहनत करने का सद्गुण जिसमें विकसित हो जाता है, उसकी अन्य अनेकों प्रतिभाएँ जागृत हो जाती हैं । परिस्थिति वश चाही हुइ दिशा में, चाहे हुए समय में कोई सफलता न भी मिले तो भी यह निश्चित है कि वह व्यक्ति प्रतिभाशाली एवं मनीषी अवश्य बन जाता है और अपनी इन विशेषताओं के कारण समय-समय पर अन्य अनेक प्रयोजनों में दूसरों की अपेक्षा अधिक सफल सिद्ध होता है ।
देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन करके १४ रत्न निकाले थे । दोनों की दरिद्रता एवं विपन्नता से द्रवित होकर उन्हें प्रजापति ने यही परामर्श दिया था कि आप लोग अनवरत "परिश्रम" करें । इसके फलस्वरूप आपके सभी अभाव एवं कष्ट दूर होंगें । उन्होंने किया भी वैसा ही । फलस्वरूप जो कुछ मिला, उसे पाकर उन्हें ही नहीं समस्त संसार को अधिक सुखी, अधिक सम्पन्न होने का अवसर मिला, हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते तो उनका दैन्य-दारिद्र्य दिन-दिन बढ़ता ही रहता और अंत में वे अपने अस्तित्व से ही हाथ धो बैठते ।
"आलस्य" छोड़िए-"परिश्रमी" बनिए पृष्ठ-४
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
0 comments:
Post a Comment