नमस्कार मित्रो, ऋषि चिन्तन चैनल में आपका स्वागत है, आज का विषय है ।
दारिद्र्य अर्थात आलस्य का दुष्परिणाम
"दारिद्र्य"और कुछ नहीं मनुष्य के शारीरिक और मानसिक आलस्य का ही प्रतिफल है । जिस वस्तु का समुचित उपयोग नहीं होता वह अपनी विशेषता खो बैठती है । सीलन में पड़े हुए लोहे को जंग लग जाती है और उसी से वह गलता चला जाता है । खूँटे से बँधा हुआ घोड़ा अड़ियल हो जाता है, जिन पक्षियों को उड़ने का अवसर नहीं मिलता वे अन्तत: उड़ने की शक्ति ही खो बैठते हैं । पान के पत्तों की हेराफेरी न की जाय तो जल्दी ही सड़ जाते हैं । यही स्थिति मनुष्य के शरीर की भी है, यदि उसे परिश्रम से वंचित रहना पड़े तो अपनी प्रतिभा, स्फूर्ति एवं प्रगतिशील तेजस्विता ही नहीं खो बैठता प्रत्युत अवसाद ग्रस्त होकर रोगी भी रहने लगता है । जो बैठे रहते हैं, उनकी तोंद निकल आती है, शरीर भारी हो जाता है, चलने-फिरने में कठिनाई होती है, साँस फूलती है, दिल धड़कता है, पेशाब में शक्कर जाने लगती है, पैर भड़कते हैं और सिरदर्द बना रहता है । इतनी व्यथाएँ उन लोगों के पल्ले बँधती है, जिन्हें परिश्रम नहीं करना पड़ता और बैठे-बैठे आलस्य में दिन बिताते हैं ।
आराम तलब, मेहनत से बचने वाले लोगों की जीवनी शक्ति क्षीण हो जाती है, सर्दी-गर्मी और बीमारियों से लड़ने की सामर्थ्य चली जाती है । जल्दी-जल्दी जुकाम होता है, सर्दी, खाँसी सताती है, जल्दी लू लगती है, गर्मी का प्रकोप रहता है । कोई छोटी सी भी बीमारी हो जाय तो मुद्दतों जड़ जमाये बैठी रहती है, कीमती दवा-दारू कराने पर भी टलने का नाम नहीं लेती । ऐसा होता इसलिए है कि वह जीवनी शक्ति जो परिश्रम करने वाले में प्रदीप्त रहती है, ऐसे लोगों में मर जाती है और वे किसी छोटे-मोटे आक्रमण तक का सामना कर सकने में असमर्थ हो जाते हैं ।
जिन्होंने कठोर श्रम के द्वारा अपनी जीवनी शक्ति को प्रखर और प्रचुर बनाया है वे शरीर पर होने वाले किसी भी बाह्य आक्रमण का प्रतिरोध करते हुए जल्दी ही रोग मुक्त हो जाते हैं । उन्हें अच्छे होते देर नहीं लगती । कोई चोट लग जाय तो जल्दी ही जख्म भर जाता है, सर्दी-गर्मी का प्रकोप एक दो दिन से अधिक नहीं रहता *पर जिनमें उस तरह की क्षमता संचित नहीं है, उन्हें थोड़ी-थोड़ी विकृतियाँ मुद्दतों घेरे बैठी रहती हैं ।
"आलस्य" छोड़िए-"परिश्रमी" बनिए पृष्ठ-५
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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