કલ્પવૃક્ષ

ૐ ભૂર્ભુવ:સ્વ: તત્સવિતુર્વરેણ્યં ભર્ગોદેવસ્ય ધીમહિ ધિયો યો ન: પ્રચોદયાત્ ||

बात-बात पर उद्विग्न न हों


बात-बात पर उद्विग्न न हों

जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए तत्संबंधी योग्यता, अनुभव के साथ-साथ मानसिक संतुलन, शांत मस्तिष्क की भी अधिक आवश्यकता होती है । कोई व्यक्ति कितना ही योग्य, अनुभवी, गुणी क्यों न हो, यदि बात-बात पर उसका मन आँधी-तूफान की तरह खुद उद्वेलित, अशांत हो जाता हो तो वह जीवन में कुछ भी नहीं कर पाएगा । उसकी शक्तियाँ व्यर्थ में ही नष्ट हो जाएँगी और भली प्रकार से वह अपने काम पूरे नहीं कर सकेगा ।

प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम "शांत" और "संतुलित" मस्तिष्क के द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं । संसार में मनुष्य ने अब तक जो कुछ भी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उसके मूल में धीर-गंभीर, शांत मस्तिष्क ही रहे हैं । कोई भी साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार व शिल्पी यहाँ तक कि बढ़ई, लुहार, सफाई करने वाला श्रमिक तक अपने कार्य तब तक भली-भाँति नहीं कर सकते, जब तक उनकी मन:स्थिति शांत न हो ।  कोई भी साधना  स्वस्थ, संतुलित मनोभूमि में ही फलित हो सकती है । जो क्षण-क्षण में उत्तेजित हो जाता हो, सामान्य सी घटनाएँ जिसे उद्वेलित कर देती हों, जिसका मन अशांत और विक्षुब्ध बना रहता हो, ऐसा व्यक्ति कोई भी कार्य भली प्रकार से नहीं कर सकेगा  और न वह अपने काम के बारे में ठीक-ठीक  सोच-समझ ही सकेगा ।

शांत और संतुलित अवस्था में ही मन कार्य करने तथा भली प्रकार सोचने-समझने की सहज स्थिति में होता है । ऐसी ही दशा में वह कोई रचनात्मक उपयोगी बात सोच सकता है और उसे पूरी कर सकता है । संतुलित स्थिति में मनुष्य की शक्तियाँ एकाग्र,  केंद्रित और परस्पर सहयोगी होकर काम करती हैं । अशांत स्थिति में आवेग,उद्वेगों में शक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं । वे अपनी मनचाही दिशाओं में दौड़ने लगती हैं ।

मन में उठने वाले उद्वेगों का मुख्य कारण शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता ही है । पाचन-क्रिया की गड़बड़ी, जीर्ण रोग,  अनिद्रा दुर्बलता आदि से मन  भी  अस्त-व्यस्त और उद्विग्न बन जाता है । शरीर. में कोई गड़बड़ी हो, कोई कष्ट हो, तो. प्रायः चिड़चिड़ाहट, अधीरता, मानसिक अशांति, और अतृप्ति पैदा हो जाती है, जो मन को "असंतुलित" बना देती है । संतुलित और शांत मनोदशा के लिए हमें अपने स्वास्थ्य को सुधारना होगा । ऐसा वातावरण और संगत जिसमें हमें बार-बार उद्विग्न होना पडे़,  मनोभूमि असंतुलित हो  जावे उससे बचते-बचते रहना चाहिए ।

आवेशग्रस्त होने से अपार हानि- पृष्ठ-३
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य

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યુગક્રાંતિના ઘડવૈયા પં. શ્રીરામ શર્મા આચાર્ય

યુગક્રાંતિના ઘડવૈયા પં. શ્રીરામ શર્મા આચાર્યની કલમે લખાયેલ ક્રાંતિકારી સાહિત્યમાં જીવનના દરેક વિષયને સ્પર્શ કરાયો છે અને ભાવ સંવેદનાને અનુપ્રાણિત કરવાવાળા મહામૂલા સાહિત્યનું સર્જન કરવામાં આવ્યું છે. તેઓ કહેતા “ન અમે અખબારનવીસ છીએ, ન બુક સેલર; ન સિઘ્ધપુરૂષ. અમે તો યુગદ્રષ્ટા છીએ. અમારાં વિચારક્રાંતિબીજ અમારી અંતરની આગ છે. એને વધુમાં વધુ લોકો સુધી ૫હોંચાડો તો તે પૂરા વિશ્વને હલાવી દેશે.”

દરેક આર્ટીકલ વાંચીને તેને યથાશક્તિ–મતિ જીવનમાં ઉતારવા પ્રયત્ન કરશો તથા તો ખરેખર જીવન ધન્ય બની જશે આ૫ના અમૂલ્ય પ્રતિભાવો આપતા રહેશો .

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